मत कहो आकाश में कोहरा घना है
ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है
- कवि दुष्यंत कुमार
पिछले कई दशकों से राष्ट्रीय राजधानी स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) का अध्ययन के क्षेत्र में एक ख़ास महत्व रहा है । इसने देश को गर्व करने के लिए ऐसी कई नामचीन हस्तियां दी है जो भारत के नीति निर्माताओं के रूप में गीने जाते हैं और साथ ही जिनसे भारत की पहचान होती है लेकिन फर्जी राष्ट्रवाद की चाशनी में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को लपेट कर गोदी मीडिया ने पिछले कुछ सालों में कुछ इस तरह पेश किया है जिससे एक आम आदमी जब भी इस विश्वविद्यालय के बारे में सुनता है तो उसका चेहरा देखने लायक होता है ।
पहले ये समझने कि कोशिश की जाए कि एक आम आदमी जब सड़क किनारे सैलून की दुकान में बाल कटाने के लिए सैलून में बैठता है तब जेएनयु की बात पर क्या कहता है या ट्रेन में सफ़र के दौरान जब सामने वाले साथी की जेएनयू में पढ़ने की बात सुनता है तब वह उसे कैसे देखता और समझता है ?
समस्या केवल JNU के साथ नहीं है । समस्या यह है कि समाचार चैनल पर जो दिखाया जा रहा है, जो आग फर्जी डिबेट से भड़काई जा रही है उसे "गलत" मान कर उसका विरोध करने वाली जनता बहुत कम है । विरोध का मतलब विरोध से है, उसे केवल न देखने भर से नहीं जबकि उस तरह की डिबेट का समर्थन एक खास मानसिकता के लोग संगठित होकर करते हैं ।
विरोध के स्वर संगठित रूप से नहीं उठ पा रहे जिस संगठित तरीके से प्रोपगैंडा काम कर रहा है । अच्छे लोगों की फ़ितरत ये होती है कि वो मान के बैठे होते हैं कि अंत में जीत उन्हीं की होगी । उस अंत का इंतजार करने की बजाय जीत के लिए संगठित रूप से कुछ करना ज़रूर होगा क्योंकि आज एक झूठ को सौ बार सौ माध्यम से इस प्रकार बोला जा रहा है जिससे वह एक ख़ास आबादी को सच लगने लगा है । सुधीर चौधरी, अंजना ओम कश्यप और रोहित सरदाना व अन्य गोदी मीडिया की लंबी फेहरिस्त है जिसे एक 'भीड़' सुनती है, वह सुनकर वो भीड़ उसे देखकर भीड़ का रूप ले लेती है । विडम्बना यह है कि वह भीड़ उस भीड़ के ख़िलाफ़ होती है जो भीड़ विश्विद्यालय में बढ़े फीस के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रही होती है. इस भीड़ को एक दूसरे से अलग हमारा मीडिया कर रहा है.
यह शायद पहली बार है जब इस लोकतंत्र में विरोध करने वालों का विरोध सरकार की समर्थक जनता करती है । कभी उसका यह विरोध मुखड़ रूप से भी होता है तो कई बार मौन समर्थन भी ।
सन 1919 में भारत में अंग्रेजों ने रॉलेक्ट एक्ट लाया था. जिसके माध्यम से अंग्रेज़ बिना कोई कारण बताए किसी भी भारतीय को गिरफ्तार कर सकते थे । आपको यह जानना चाहिए कि वह कानून दूसरे नज़रिए से देखें तो दुसरे रूप में आज भी विद्यमान है. आज 124(A) के तहत देशद्रोह का मुकदमा होता है । इसे IPC में शामिल 1870 ई. में किया गया और 1860 ई. में बनाया गया था. यह भी अंग्रेजों के ज़माने में बना कानून है यह ध्यान देने की बात है. इस देशद्रोह की अवधारणा को मोदी सरकार अपने विरोध करने वालों के ख़िलाफ़ ढाल के रूप में इस्तेमाल कर रही है । हमें गोरे अंग्रेज़ों से तो आज़ादी मिल गई लेकिन धर्म और फर्जी राष्ट्रवाद की भावनाओं के बीच हमने अपने आँखों पर पट्टी बाँध ली है या फिर यह कहना ज़्यादा सही होगा कि हुकूमत हमारी 'आँखे' निकाल कर हमें 'चश्मा' बाँट रही है.
देशभक्ति सत्ता में बैठे हुए लोगों से सवाल करना है । अपने नागरिक होने के सम्भावनाओं पर प्रश्नचिन्ह मत लगने दें । मुझे बढ़े हुए फीस और उन आंकड़ों की फेर में नहीं उलझना है । मुझे बस यह जानना है कि जेएनयू से उठ रहे हर विरोध के स्वर को एक असंतोष की नज़र से क्यों नहीं देखा जाता, उसे ग़लत क्यों समझा जाता है ?
इस सवाल का जवाब देने लायक आप नहीं बचें हैं क्योंकि आजतक Aajtak, ज़ी न्यूज़ Zee News जैसे चैनलों में हर शाम आपको बताया जाता है कि देश को आज़ादी 2014 में मिली है....
संविधान 'फाड़ के' फेंक दीजिए क्योंकि सबसे बड़े लोकतंत्र का दम्भ भरने वाले देश भारत में भारत की NCERT की राजनीति विज्ञान के पुस्तक से "लोकतंत्र" का चैप्टर ही एक एजेंडे के तहत हटा दिया गया है
आपकी आलोचनात्मक दृष्टी आपका इंतजार कर रही है
- नेहाल अहमद ( Nehal Ahmad )
thenehalahmad@gmail.com
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