Tuesday, October 27, 2020
AMU के 41 छात्र बनें यूनानी चिकित्सा अधिकारी, उक्त पद पर कुल 57 चयन, पढ़ें एक छात्रा एवं प्रोफेसर से बातचीत
एएमयू के 41 छात्र बने यूनानी चिकित्सा अधिकारी
October 28, 2020
नेहाल अहमद । Twocircles.net
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) अपने शताब्दी वर्ष में एक के बाद एक कई उपलब्धियों को अपने खाते में शामिल कर रहा है। अब एक उपलब्धि युनानी मेडिकल शिक्षा के लिए मशहूर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों की भी हो गई है। उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग (यूपीपीएससी) द्वारा यूनानी चिकित्सा अधिकारियों के पद के लिए चुने गए 57 उम्मीदवारों में से 41 छात्र एएमयू के हैं। बताते चलें कि हकीम अजमल खान तिब्बिया कॉलेज, यूनानी चिकित्सा संकाय, एएमयू के बीयूएमएस और एमडी पासआउट हैं।
13 अक्टूबर, 14, 15 और 16 को साक्षात्कार के लिए उपस्थित हुए इन छात्रों को देश भर के 171 उम्मीदवारों में से चुना गया था ।
यह है मोहम्मद अकरम, अब्दुल हकीम, सैय्यद राशिद अली, जकी अहमद सिद्दीकी, सरताज अहमद, दानिशमंद, सल्लल्लाह, विकार अहमद, सबिहा सुम्बुल, नजमुद्दीन अहमद सिद्दीकी, मोहम्मद शादाब, मोहम्मद अली, ज़ियाउल हक, मोहम्मद आज़म, तसफ़िया हकीम अंसारी, ज़ाहिद कमाल, तस्सुम अहमद, ज़ाहिद कमाल, रिजवान मंसूर खान, ज़रीन बेग, अनम, मोहम्मद अकरम लईक, रफीउल्लाह, हुमैरा बानो, रिफाकत, शिरीन फ़ातिमा, तरन्नुम खानम, एहसान रऊफ़, अज़ीज़ुर रहमान, अब्दुल कुद्दुस, हुमा अख्तर, अशफाक अहमद, उरूज बी, मोहम्मद असलम, मोहम्मद अज़ीम अशरफ, फारूक अनवर खान, मोहम्मद ज़ाकिर सिद्दीकी, इरम बुशरा, दानिश अख्तर, मोहम्मद संजर किदवई, सबा फातिमा, मोहम्मद इरफ़ान अंसारी और मोहम्मद तारिक।
छात्रों को उपलब्धि के लिए बधाई देते हुए, एएमयू के कुलपति, प्रोफेसर तारिक मंसूर ने कहा कि यह समर्पित संकाय सदस्यों द्वारा निरंतर मार्गदर्शन और छात्रों की कड़ी मेहनत का परिणाम है। युनानी मेडिसिन के संकाय के डीन प्रो अब्दुल मन्नान ने कहा, “यह आशा की जाती है कि चयनित छात्रों से प्रेरणा लेकर, अन्य लोग भी उच्च लक्ष्य हासिल करने के लिए प्रेरित होंगे।”
तिब्बत कॉलेज के प्रिंसिपल प्रो सऊद अली खान ने अपनी इस उपलब्धि की सफलता का जश्न मनाने की बात की । साथ ही कहा कि आगे के जीवन में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के तौर पर राष्ट्र की सेवा करने में सफल होने पर ध्यान केंद्रित करें । मोआलिजात विभाग के प्रोफेसर बदरुददुजा खान ने कहा कि “एएमयू समुदाय इन 41 छात्रों पर गर्व करता है” !
अपनी कामयाबी पर चयनित छात्रा ज़रीन बेग बताती है कि आप देखेंगे कि पूरे हिंदुस्तान में कुछ ही गिने-चुने यूनानी मेडिकल कॉलेज हैं ,जहां पर यूनानी मेडिकल की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान की जाती है। आम आदमी इसके बारे में बहुत ज़्यादा जानते नहीं, न तो यूनानी मेडिसिन के बारे में, न ही यूनानी मेडिसिन के शिक्षा के पैटर्न का या फिर इस क्षेत्र में जो अवसर है उसके बारे में ज़्यादा नहीं जानते हैं। इसलिए जब वह अपने बच्चों को कैरियर को लेकर गाइड करते हैं तो उन्हें भी इस बारे में ज़्यादा पता नहीं होता है और आखिरकार जब बारहवीं के बाद जब उन्हें कैरियर का चुनाव करना होता है तो उन्हें मेडिकल, इंजीनियरिंग व अन्य कोर्स जो सामान्यतः लोगों को पता होता है उस राह पर चल पड़ते हैं। हमारे यहां यूनानी मेडिसिन को लोग अच्छे से जानते-समझते थे। यहां पर अजमल खान तिब्बिया कॉलेज जैसा इदारा मौजूद है । ख़ास तौर पर यहां मैं कहना चाहूंगी कि मेरे वालिद साहब की जो रहनुमाई थी उसने मुझे काफ़ी उत्साहित किया कि मैं इस क्षेत्र को एक अवसर के रूप में लेकर इस क्षेत्र में अपना कैरियर बनाऊं। मेरे वालिद साहब ही इस मामले में मेरे मेंटर, गाइड सबकुछ रहे, उन्होंने ही मुझे इसके लिए सही तरीके से प्रेरित किया और उन्हीं का सपना था कि मैं इस क्षेत्र में नाम रौशन करूं और अल्हम्दुलिल्लाह मुझे इस बात की खुशी है ।
फ़ोटो: प्रो. अब्दुल अज़ीज़ खानअलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के तिब्बिया कॉलेज में तहाफुज़ी वा समाजी तिब विभाग के प्रोफेसर अब्दुल अज़ीज़ खान इस कामयाबी का राज बताते हुए कहते हैं कि हमारा कॉलेज हिंदुस्तान का सबसे अच्छा कॉलेज है जहां पर ग्रेजुएट एवं पोस्ट ग्रेजुएट को अध्यापन एवं प्रशिक्षण बहुत अच्छा दिया जाता है। एएमयू का अपना नाम भी है। उन्हें यहां होस्टल, लाइब्रेरी, प्रतियोगी वातावरण, संसाधनों की उपस्थिति एवं प्रोफेसर की मौजूदगी जैसे अन्य सुविधाओं का लाभ मिलता है जिससे उन्हें अपने काम को और बेहतर तरह से कर सकने में मदद मिलती है।
नोट: यह न्यूज़ twocircles.net में 27 अक्टूबर 2020 को प्रकाशित हुआ.
Wednesday, October 21, 2020
ग्राउंड रिपोर्ट सीमांचल : ” हम लोग हरिजन क्लास के हैं, हम तो यही सोच रहे हैं कि बच्चे हमारे पढ़ कर थोड़ा कुछ आगे बढ़ें ! -2
October 20, 2020
हमारे संवाददाता किशनगंज नेहाल अहमद ने बिहार के सबसे पिछड़े हुए इलाके के निवासियों से बात की और जानने की कोशिश की आखिर सीमांचल की समस्या की जड़ में क्या है ! सीमांचल के लोगों के ख्यालात उन्ही की ज़बान में पढ़िए –
फोटो: नदीम हसन
किशनगंज विधानसभा शहरी इलाके के नदीम हसन कहते हैं कि ” शहर में अभी भी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है । शिक्षा, रोज़गार एवं स्वास्थ्य पर ख़ासा ध्यान देने की ज़रूरत है। स्थानीय इलाकों के कई कार्यों में पूरी तरह से मोहर नहीं लगाया जा सकता । राजकीय विश्वविद्यालय से संबंधित कॉलेजों के सत्र के अनियमितता से जुड़े सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि स्थानीय कॉलेज जब तक बीएन मंडल यूनिवर्सिटी से जुड़े थे उसकी वजह से सत्र में अनियमितता बहुत थी लेकिन मैं कॉलेज से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ नहीं हूँ लेकिन जैसा कि अब सुनने को मिला है कि पूर्णिया कॉलेज से अब एफिलिएशन के बाद की स्थिति में सत्र में पहले से काफ़ी सुधार आया है । मुस्लिम क़यादत के सवाल के जवाब में कहा कि मुस्लिम, दलित एवं पिछड़े लोगों की अपनी सियासी आवाज़ होनी चाहिए ” पिछले कुछ महीने पूर्व हुए किशनगंज विधानसभा उपचुनाव में एआईएमआईएम की जीत के बाद के इलाके स्थिति की बात कहते हुए बताया कि पिछले 6 महीने तो लगभग लोकडाउन ही रहा । उन्हें एक मौका देना चाहिए । अगर स्थानीय एआईएमआईएम अगर ठीक ढ़ंग से काम नहीं कर सकी तो क्या हैदराबाद के साख को नुकसान होगा के सवाल के जवाब में इस बात से इंकार करते हुए कहा कि पार्टी की स्थानीय यूनिट पार्टी की विचारधारा एवं उसके शीर्ष से चलती है । किसी बीज को लगाने पर ही वो एक रोज़ पौधा बनता है । वक़्त को लगेगा !
किशनगंज विधानसभा क्षेत्र के हॉस्पिटल रोड स्थित एक चाय की दुकान पर Twocircles.net के संवाददाता ने कुछ आर्थिक रूप से निचले तबकों के लोगों से भी बात की जिसमें पारंपरिक रिक्शाचालक, रोज़ कमाने-खाने वाले व अन्य लोग शामिल थे । कई लोगों ने अपनी-अपनी समस्याओं को बताया यहां राजू ने कहा कि ” इंदिरा आवास के 2 लाख उन्हें मिल गया, पहली किस्त में 50,000 रुपये, दूसरी किस्त में 1 लाख रुपये मिले जबकि 1 किस्त अभी बाकी है वो अटका हुआ है, उसके लिए 20,000 रुपये की मांग की जा रही है अब पता नहीं क्या जाने आख़िर ये पैसे क्यों नहीं आ रहे !
पारंपरिक रूप से पैंडल वाले रिक्शाचालक निमुधन पासवान कहते हैं कि 15-16 वर्ष की आयु से रिक्शा चलाते और रेलवे परिसर में रहते हैं । लालू, राजीव को वोट दिये हुए हैं । आगे बड़े ही मार्मिक तरीके से कहते हैं कि “सर ! आखिर हम नागरिक हैं कि नहीं ? हम लोगों को दरकिनार कर दिया जाता है, कोई भी आता है जूते-लात भी दिखा देता है, ई-रिक्शा के आने के बाद हम पारंपरिक रिक्शावालों को खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है । हमारे रोज़गार पर इसका ख़ास असर पड़ा है। सरकार ई रिक्शा के लिए लोन देने की बात करती है ! हमारे पास तो रहने का व्यवस्था भी नहीं है तो हम लोन लेकर क्या करेंगे ! हम क़िस्त नही दे पाएंगे ! किसी को हमारी परवाह नही है !
हमारी बात सुन रहे एक और बुजुर्ग लगन महतो कहते हैं ” सरकार लोन नहीं देता है, काहे ! हमरा राशन क्यों बंद है ? कितना लीक पर दियें…! कितना लीक पर दियें….! मुखिया को दियें, कोई आता है लिखने के लिए उ पैइसा लेकर चल जाता है, अभी तक कोई राशन नहीं भेजा तो क्यों ? कोई राशन अभी तक नहीं मिला चलिये हम बाजार में चाहे महल्ला में पूछिये…तभी एक शख़्स ने मेरा काम आसान कर दिया… लगन मोतीबाग़ में रहते है वो कहते हैं, हम पढ़े लिखे नहीं है वरना सरकार का मूँह बंद कर दिये होते…! लगन ठेला चलाते हैं वो बताते हैं कि ‘नून-रोटी चल जाता है ठेला चलाकर के’…..! दो बच्चे पढ़ रहे हैं. ‘ स्कूल में जो बच्चे लोग को एडमिशन कराने के लिए जाते हैं तो वहां तो पैसा लगता ही है, हम लोग हरिजन क्लास के हैं, हम तो यही सोंच रहे हैं कि बच्चे मेरे पढ़ कर थोड़ा कुछ आगे बढ़ें !
नोट: यह ग्राउंड रिपोर्ट पहली बार 20 अक्टूबर 2020 को Two circles.net में प्रकाशित हो चुकी है.
Tuesday, October 20, 2020
ग्राऊंड रिपोर्ट सीमांचल : “हिन्दू जीते या मुसलमान कोई फर्क नही पड़ता,काम कोई नही करता ” ! -1
October 18, 2020
हमारे संवाददाता किशनगंज नेहाल अहमद ने बिहार के सबसे पिछड़े हुए इलाके के निवासियों से बात की और जानने की कोशिश की आखिर सीमांचल की समस्या की जड़ में क्या है ! सीमांचल के लोगों के ख्यालात उन्ही की ज़बान में पढ़िए –
हारीबिट्टा गाँव के अनवर हुसैन बताते हैं किशनगंज की आबादी लगभग 75 फीसदी मुसलमानों की है। यहाँ कांग्रेस, जदयू और राजद डेरा डालती रही है । यहां ये पार्टियों ने अपनी जगह बनाई है लेकिन काम क्या किया है ये यहां के लोग जानते हैं ! मेरे गाँव को मुख्य सड़क से जोड़ने वाला पूल करीब पिछले 7 वर्षों से टूटा हुआ है ! डाइवर्जन बनाया हुआ है जिसमें बारिश के दिनों में काफ़ी दिक्कतों का सामना कर नाव से आवागमन करना पड़ता है ! गाँव में तेज़ हवा के चलने एवं बारिश होने पर बहुत जल्द ही बिजली काट ली जाती है जो कि बाढ़ के समय कुछ दिनों के लंबे समय तक चला जाता है । पिछले दो-तीन साल पहले गाँव में घटी घटना का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि एक बच्चे की माँ खेत की मेढ़ पर बच्चा खेल रहा था, वो माँ खेत में मजदूरी कर रही थी तभी एक ट्रेक्टर के नीचे आ जाने से इस बच्चे की मौत हो गई तो भी पुलिस ने उस ट्रक्टर के चालक के ख़िलाफ़ कोई कारवाई नहीं की । इसकी वज़ह यह है कि ट्रेक्टर का मालिक मुखिया को पैसा खिला दिया था । यह भी कन्फ़र्म नहीं कहा जा सकता कि पुलिस में यक्त घटना रिकॉर्ड में है भी या नहीं । इलाके में आज भी सामंती एवं दमनकारी व्यवस्था फल-फूल रही है । उस औरत को आज भी इंसाफ़ नहीं मिला । यहाँ की जनता आपसी ताअल्लुक़ के आधार पर जनप्रतिनिधियों का चुनाव करती है । कई आयोजनों जैसे निकाह, शादी न अन्य सुख-दुःख में खुशी या सांत्वना ज़ाहिर कर देने भर से मनोवैज्ञानिक रूप से यहां की एक तबके की जनता का रुझान उन जनप्रतिनिधियों की तऱफ झुक जाता है । जनता में कोई ख़ास राजनीतिक चेतना नहीं आई है । कई लोग गाँव-परिवार एवं इलाके के प्रभावी लोगों की बातों में आकर वोट दे देते हैं । जनप्रतिनिधि दहेज प्रथा जैसी कुरीतियों के ख़िलाफ़ बोलने से कतराते हैं । जिस इलाके में जहां मुखिया खुद अपनी बेटी के शादी में लाखों देकर शादी करवाते हों वहां दहेज प्रथा के मुख़ालफ़त की बात कहां से होगी ! दहेज को लेकर बने कानून का ज़मीनी स्तर पर कोई ख़ास लाभ नहीं हो रहा । यहाँ से इंडो-नेपाल सीमा नज़दीक है । अवैध नशीले पदार्थों का नेपाल सीमा से भारत में प्रवेश बड़ी आसानी से हो रहा है जिसमें राजनीतिक दलों की कोई दिलचस्पी नहीं है। यह इंडो-नेपाल सीमा पर तैनात एसएसबी के मिलीभगत या लापरवाही के बिना यह संभव नहीं है । नशे की वजह से कई बच्चे ग़लत दिशा में जा रहा है । विधायक इन सब मामलों पर संज्ञान नहीं लेते जिस कारण ऐसे धंधे फलफूल रहे हैैं ।
सरकार में रहते हुए दो जदयू विधायकों ने एक डिग्री कॉलेज तक नहीं खुलवाया है तो उनसे कई व्यवसायिक कोर्सों को खुलवाने की बात करना उम्मीद से बाहर की बात है। यहाँ के स्थानीय कॉलेजों में पढ़ने वाले छात्र बाद में स्थानीय दुकानों में सहायक के तौर पर लग जाते हैं, अस्पतालों में कम्पाउंडर के तौर पर लग जाते हैं । बहादुरगंज एवं किशनगंज विधानसभा में दशकों से कांग्रेस के विधायक रहने के बाद भी ज़्यादा विकास की ज्योति नहीं जली है ।
शिक्षा पूरी तरह व्यवसाय में तब्दील हो गया है । भ्रष्टाचार कॉलेजों एवं बाबुओं के दफ़्तर में खूब हो रहा है । प्राइवेट स्कूल में कोरोनाकाल में नाम काटने की धमकी देकर फ़ीस मांगी गई । किशनगंज के अधिकतर स्कूल’ कम्प्यूटर लैब, साइंस की लेबोरेटरी के नाम पर आनन-फानन में पैसे ऐंठता रहते है।
शहर के बीचोबीच एक रमज़ान नदी गुज़रती है जिसका मुद्दा केवल बाढ़ के दिनों में उठता है । इस नदी की गहराई को बढ़ाया जाना चाहिए साथ ही इसके चौड़ीकरण पर भी बल देना चाहिए । घाट की नियमित सफाई ज़रूरी है एवं मार्केट वाले इलाके में इस नदी पर पूल के होने और उस पूल के दोनों बगल की रेलिंग बहुत ज़्यादा टूट गई है जिस पर काम नहीं हो रहा है जिससे किसी दुर्घटना के होने का खतरा बना रहता है । शहरी इलाकों में जुट, चाय उद्योग पर बल देने की ज़रूरत है । अगर प्रोसेसिंग प्लांट लगता है तो स्थानीय लोगों को काफ़ी फ़ायदा होगा । राजद के वक़्त में ठाकुरगंज विधानसभा में जुट के कारखाने लगे थे जो बंद कर दिये गए । कालीन, चटाई का काम हस्तकरघा मशीनों से होता था । नीतीश कुमार के वादों के बावजूद वो शुरू नहीं हो पाया । नीतीश के दावे एवं वादे इस संदर्भ में फेल रहे । एएमयू किशनगंज का मुद्दा बड़ा, पुराना और नासूर सा बन गया मुद्दा है । यह मुद्दा केवल किशनगंज नहीं बल्कि पूरे सीमांचल का मुद्दा है जो राजनीति एवं संबंधित लोगों की उदासीनता की चपेट में आकर अपने बुरे दौर में है । पहली बात तो यह कि बाकी एएमयू सेंटर की तरह किशनगंज सेंटर में एमबीए, बीए- एलएलबी, बीएड खुलना चाहिए था लेकिन एक समय तक बीएड होने के बाद NCTE की मान्यता न होने पर वो अब नहीं हो रहा । केवल एमबीए ही चल रहा है । बीए-एलएलबी को लेकर भी उदासीनता बरती गई है । अगर बीए-एलएलबी के लिए बार काउंसिल ऑफ इंडिया में प्रयास किया गया होता तो शायद कुछ बेहतर नतीजे इस संबंध में देखने को मिल सकते थे।
किशनगंज विधानसभा क्षेत्र के अम्बर शहज़ाद ने कहा कि हमारे विधानसभा क्षेत्र में कुछ महीने उपचुनाव जीतने के बाद एआईएमआईएम के एमएलए थे । उनका काम कहीं दिखा ना ही उनसे पहले जो कांग्रेस से थे उनका दिखा । कोई ज़्यादा योगदान रहा नहीं इससे ये पता चलता है कि आप पार्टी बदल देते है फिर भी काम नहीं हो पाता है । स्थानीय राजनीति में सुधार की आवश्यकता है। अभी के समीकरण के मुताबिक़ मुझे लगता है कि किशनगंज में एआईएमआईएम और कांग्रेस के बीच मुक़ाबला काटे का होगा । बाकी रही एनडीए की बात तो उनका किशनगंज से सीट निकालना बहुत मुश्किल है । हम विधायक को उनके काम काज के बुनियाद पर वोट करेंगे । भाषण से नहीं काम से वोट मिलेगा । जो चुनाव में आएगा उनका पिछला रिकॉर्ड चेक किया जाएगा कि ये आदमी जब किसी पद पर था तो वो वहां कितना समाज के लिए कितना काम किया। भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। कोई हिन्दू जीते या मुसलमान इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । जैसे हमारे विधानसभा में सभी मुस्लिम जीतते है लेकिन मुसलमानों को हालात में कोई सुधार नहीं, बस भरम है कि वो मुस्लिम हैं तो मुसलमानों के लिए कुछ करेंगे।
कोचाधामन प्रखण्ड सामाजिक कार्यकर्ता सद्दाम अलीग कहते है कि सीमांचल सहित किशनगंज में बदहाली के स्तर में जल्द सुधार होता नहीं दिख रहा । आज जिस तरह जिस तेज़ी के साथ दुनियां बदल रही है उस हिसाब से इस क्षेत्र की रफ़्तार बहुत धीमी है । इंटर, ग्रेजुएशन स्तर पर कॉलेजों की संख्या को बढ़ाकर सत्र को नियमित रूप से चलाना चाहिए और ग्रेजुएशन एवं पोस्ट ग्रेजुएट वाली कॉलेजों की संख्या बढ़े ताकि स्थानीय इलाकों में साथ में कोई रोज़गार में लगे युवा एवं घर में रह कर पढ़ाई करने वाली युवतियों के बीच कोई बाधा उत्पन्न न हो । एएमयू किशनगंज सेंटर की हालत को बेहतर किया जाना चाहिए और साथ ही कृषि क्षेत्र को बढ़ावा दिया जाना चाहिए ।
नोट: यह ग्राउंड रिपोर्ट दिनांक 18 अक्टूबर 2020 को पहली बार Two circles.net में प्रकाशित हुआ.
Thursday, October 15, 2020
बिहार चुनाव : तेजस्वी को ‘मीरान हैदर’ पर खामोशी का नुकसान होगा !
बिहार में राजनीतिक बदलाव के साथ सामाजिक बदलाव होते रहे हैं । इन बदलावों का सबसे बड़ा कारक धार्मिक और जातीय विमर्श की ‘सोशल इन्जीनियरिंग’ था । बिहार सबसे रेखांकित राज्य है जहां राजनीतिक लड़ाई हमेशा दिलचस्प होती है और यह राष्ट्रीय राजनीति को भी प्रभावित करती है । यहां की राजनीति में सबसे दिलचस्प हिस्सा 5 पार्टियां हैं जो पिछले 2 विधानसभाओं और 2 लोक सभाओं पर हावी है । बिहार का राजनीतिक मौसम हमेशा अनिश्चित होता है और यही वह कारण है जिसकी वजह से बिहार की भविष्यवाणी सटीक और निश्चित नहीं होती है ।
वर्तमान में नीतीश कुमार जी भाजपा और अन्य के समर्थन से सीएम पद संभाल रहे हैं लेकिन इस चुनाव में, आगे की इन बिंदुओं के कारण, यह नीतीश कुमार जी के लिए एक ‘एसिड टेस्ट’ होगा । विरोधी लहर, एनआरसी/सीएए/एनपीआर पर रुख़, कोरोनावायरस और इन सबके बीच व्यवस्था की कड़वी सच्चाई, मज़दूरों सहित सभी प्रकार के प्रवासियों का मुद्दा, बाढ़ और आपदा प्रबंधन का मुद्दा, एनडीए के सीएम चेहरे पर लोजपा का स्टेंड, सीएम पद के चेहरे के लिए भाजपा की राज्य इकाई का रवैया जैसे मुद्दे पर प्रतिक्रिया देखना रोचक होगा। अब स्थिति के मुताबिक , हम देखेंगे कि आगामी चुनाव के लिए पार्टी का दृष्टिकोण और आक्रामकता कैसा रहेगा । नीतीश कुमार को ‘ब्रांड फैक्टर’ जानते हैं जो जेडीयू को जीत का स्वाद देते हैं । उनका शासन और छवि का पिछले चुनाव में भाजपा को हराने, बिहार में राजद और कांग्रेस को पुनर्जीवित करने में बड़ा योगदान रहा है । इसलिए अगर जदयू भाजपा और लोजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहा है, तो संभावना अधिक है कि जदयू राज्य में बरकरार रहेगी ।
बीजेपी बिहार चुनाव में सुरक्षित खेलना चाहती है क्योंकि पश्चिम बंगाल उनके लिए अधिक महत्वपूर्ण है । वे दिल्ली चुनाव हार गए हैं फिर भी उनके वोट % बढ़ गए क्योंकि कांग्रेस में गिरावट आई है । इसलिए, वे सुरक्षित खेलना चाहती है । आरजेडी बिहार में संघर्ष करती दिख रही है बात चाहे लालू की ग़ैर-मौजूदगी की हो या नकारात्मक कदम चाहे वो मौजूदा नीतीश सरकार की विरोधी स्वर में विफलता या अपने ही ज़मीनी कार्यकर्ता मीरान हैदर के लिए ख़ामोशी इख़्तियार करना जिसकी वजह से लोग राजद से किनाराकशी कर सकते हैं । भागलपुर दंगों के कारण बिहार में कांग्रेस का कोई अस्तित्व नहीं बचा है । इस चुनाव में एमआईएम भी कोशिश कर रही है, हो सकता है कि मुस्लिम वोट % भी उनकी ओर स्थानांतरित हो जाए और आरजेडी और जदयू का मुस्लिम वोट % इस बार घट जाए । आज बिहार के मुसलमानों की राजनीति को करीब से देखने पर यही लगता है कि वे अब एक शांत मतदाता के रूप में हरेक सीट पर उसी उम्मीदवार के पक्ष में एकजुट होकर वोट देने की रणनीति पर काम कर रहे हैं, जो भाजपा गठबंधन के उम्मीदवार को हराने की कुव्वत रखता हो ।
उत्तर प्रदेश के मुसलमानों ने 1999 के लोकसभा और 2002 के विधानसभा चुनावों के चतुष्कोणीय मुकाबले में किया था लेकिन बिहार में अधिकांश सीटों पर आमने-सामने का ही मुकाबला होना है. ऐसे में बिहार के मुसलमानों का राजद और कांग्रेस के गठबंधन के साथ रहना मजबूरी है, क्योंकि यही गठबंधन भाजपा गठबंधन का मुकाबला करता दिखाई दे रहा है लेकिन बिहार के मुस्लिम नेताओं को ख़ासतौर से इसका ख़्याल रखना चाहिये कि वह सभी पार्टी में रहें और वहाँ राजनीति करें लेकिन कतई झोला ढोने वाला नहीं बनें । पार्टी का अध्यक्ष जिस समुदाय का हो उस समुदाय में ज़्यादा प्रचार कर उस पार्टी को मज़बूत कीजिये लेकिन ऐसा ना हो की पार्टी का अध्यक्ष जिस कम्यूनिटी का हो उस कम्यूनिटी का वोट पार्टी को ना मिले और आप सिर्फ अपनी ही कम्यूनिटी का वोट दिलाने में रह जायें । अगर आप राजनीति में हैं तो राजनीति कीजिये ।
(उमर शब्बीर एहसन पटना के दीघा विधानसभा क्षेत्र के निवासी हैं और साथ ही वर्तमान में एएमयू में छात्र हैं,यह बिहार चुनाव पर उनकी निजी राय है ) नोट: यह लेख पहली बार 15 अक्टूबर 2020 को Twocircles.net ऑनलाइन पोर्टल पर प्रकाशित हुआ)
Monday, October 12, 2020
महिलाओं की इस दुर्दशा पर कब तक हम सिर्फ़ और सिर्फ़ घड़ियाली आंसू ही बहाते रहेंगे !
October 12, 2020
दीप्ति कश्यप Twitter@Diptikashyap12 ||(Two circles.net के लिए)
बचपन से हमें सिखाया जाता है कि हमारा देश भिन्नता में भी एकता वाला देश है। कई दफ़े यह वाक्य सही भी लगा, मगर आज हमारा समाज किस ओर अग्रसर हो रहा है? यह समझ से परे है। अगर शरीर के किसी भाग में कोई परेशानी होती है तो उसे सबसे पहले सही करने का हर संभव उपाय किया जाता है और जब मामला जान पर आ जाए तथा उस भाग को शरीर से अलग करना ही एकमात्र उपाय हो, तो हम सहज़ ही उसे भी स्वीकार कर लेते हैं। फ़िर आज हम समाज को क्यों बद-से-बदत्तर होते हुए देख कर भी उसे सहज़ स्वीकार ही कर रहे हैं ? क्यों उसके उपचार से हम कतरा रहे हैं? सतत पोषणीय विकास की अवधारणा समझ में आती है जो हम अपनी भावी पीढ़ी को देना चाहते हैं मगर आज जिस प्रकार का समाज हम बना रहे हैं क्या वाकई में वह हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को देना चाहेंगे ?
हमारा अतीत अनेक सकारात्मक उपलब्धियों को समाहित किए हुए हैं। आज बात बस राजनीति से संबंधित है तो राजनीति में भी हमारे देश ने अनेक सकारात्मक उदाहरण पेश किए हैं जिसके लिए हम अपने पूर्वजों के सदा ऋणी रहेंगे। आजादी प्राप्त किए हुए अभी हमें इतना भी वक्त नहीं हो गया है इतिहास की जुबान में कि हम एक संक्रमण के दौर को पार कर एक नए युग में प्रवेश कर चुके हैं जहां अतीत की बातें अब पुरानी हो गई है और अब बेईमानी से लगती हैं और इस कारण हम अपने सारे आदर्शों को भूल कर एक नई किस्म की राजनीति की दुहाई दें। राजनीति किसके लिए पहला प्रश्न-उत्तर राजनेता भी खुद देंगें जनता के लिय, हमारे अवाम के लिए। एक लोकतांत्रिक देश की नींव की आधारभूत संरचना और सबसे जरूरी स्तंभ भी यही होती हैं। राजनेता हमने पहले भी देखें हैं जो एक रेल दुर्घटना के लिए अपने रेलमंत्री पद का परित्याग करते हैं क्योंकि उन्हें अपनी नैतिकता का आभाष बख़ूबी था। नेहरू-गांधी-आजाद-पटेल-मौलाना सबों के बीच आपसी मतभेद थे लेकिन बात देश की होती थी तो देश सर्वोपरि और व्यक्तिगत रूप से भी एक-दूसरे से तहज़ीब से पेश आते थे, मतभेद होते थे पर मतभेद में भी सहमति होती थी और एक-दूसरे की इज़्ज़त करते थे।
आज हम किस युग में प्रवेश कर चुके हैं? ऐसा लगता हैं मानों राजनेताओं को मर्यादित भाषा के इस्तेमाल पर संसद से पास कानून के आधार पर प्रतिबंध लगा हुआ हैं। निम्न स्तर कि व्यक्तिगत टिप्पणी करना जैसे राजनीति का एकमात्र विकल्प हो और मानना अवाम को भी पड़ेगा, पुरज़ोर तालियों की गड़गड़ाहट उन्हें( राजनेताओं) को हौसला देती हैं,क्योंकि दर्शक-दीर्घा आनंदित होती भी हैं। हमारे सोचने समझने का दायरा इतना कब गिर गया कि हम अपराध को अपराध मानने के लिए अपने आप को तैयार ही नहीं कर सकें?
पहले हमने खुद को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में बांटा, फ़िर हिन्दू-मुस्लिम में बांटा,फ़िर अब हिन्दू में भी सवर्ण और दलित में बांट रहे हैं, मुझे पूरी आशा हैं ये विभाजन अभी और बहुत आगे जाना हैं। राजनेता तो अपनी रोटी सेंकते हैं, अवाम को क्या हो गया हैं? किस आधुनिक तकनीक को प्राप्त करके हमने ऐसी महान मानसिकता हासिल की है? कहने को एक विकासशील देश के सारे मापदंडों में हम अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं मगर ऐसे विकास का क्या करना हैं ? जहाँ एक स्वस्थ मानसिकता को समझना उसे ढूँढना दुर्लभ हो!
शिक्षा के पैमाने पर हमने लगातार बेहतर प्रदर्शन किया हैं, मगर ऐसी शिक्षा को हासिल करने का अर्थ क्या हैं? मीडिया को अपने टी आर पी से मतलब हैं जनमानस के सरोकार को अलविदा कहें उन्हें वर्षों हो गए हैं और इस सब के जिम्मेदार हम खुद हैं। हमने उनके तथ्यों और समाचारों को देख कर उन्हें अपनी सहमति दी है तभी हमारे पसंद को ध्यान में रख कर वो उसी अनुरूप समाचार भी चलाते है। हुकूमत के लिये 9 दिन बहुत होते हैं अगर वाकई में इंसाफ देना ही उनका एकमात्र लक्ष्य हो। ये प्रशासन कैसे काम करता हैं जहाँ मंत्रियों कि पैरवी, उनके केस का समाधान मिनटों में संभव हो जाता हैं और शोषित, पीड़ित, वंचित जिनकी पहुँच सरकार तक नहीं होती वो दर-दर भटकते हैं? 16 दिसंबर 2012 और उसके पूर्व भी तथा 14 सिंतबर 2020 के बीच क्या बदला है? बदली हैं तो सिर्फ़ तारीख़े ! महिलाओं की अस्मत लूटने पर कब तक हम सिर्फ़ और सिर्फ़ घड़ियाली आंसू ही बहाते रहेंगे ? और कितनी निर्भया ? आख़िर कब तक? क्या वाकई में वोट बैंक की राजनीति से ऊपर उठकर बिना हिन्दू-मुस्लिम, सवर्ण-दलित,अगड़ा-पिछड़ा, अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक किए, महिलाओं को सिर्फ़ एक महिला के समान ही सम्मान,अधिकार,इंसाफ,स्वतंत्रता,इज़्ज़त और उन्हें उनका हक देना इतना मुश्किल है? मत मानो उन्हें पूज्नीय अपने बराबर कर दो ना ! उनके दर्द को सिर्फ़ दर्द ही समझो ना ! मत चलाओ फर्ज़ी नारी सम्मान योजना, उन्हें बस जितना अधिकार हमारे संविधान ने दिया है, उसे ही सही से मिल जाने दो ना!
सबसे विशाल प्रदेश के सबसे यशस्वी माननीय मुख्यमंत्री जी ने अपनी करुणा का परिचय एक बार फिर दिया हैं,पीड़िता के परिवार से वीडियो-कॉलिंग पर बात की हैं, एक सदस्य को सरकारी नौकरी का आश्वासन दिया हैं, एक मकान का वायदा किया हैं और वो यहीं नहीं रुके पच्चीस लाख रुपये की मुवावजे की भी घोषणा कर दी। प्रश्न बस एक हैं सरकारी आंकड़े के अनुसार ही भारत में 87 रेप केस प्रतिदिन होते हैं, इस एक पर इतनी रहमोकरम का आशय?सवाल बस इतना है कि अगर सरकार की नज़र में इंसाफ यही है तो 86 अन्य पीड़िता के साथ अभी तक प्रतिवर्ष नाइंसाफ़ी क्यों? और अगर इंसाफ की परिभाषा यही हैं तो संविधान,विधि-व्यवस्था, कानून की हमें क्या आवस्यकता है? सबसे यशश्वी मुख्यमंत्री के निर्णय-क्षमता से हर प्रदेश के राजनेता को सीख लेने की आवश्यकता है। एक साथ उन्होंने अनेकों कृतिमान स्थापित किए हैं, जिसकी जितनी तारीफ़ की जाए कम होगी। प्रदेश अध्यक्ष को जैसे ही खबर लगी कि अब दाग उनके प्रशासन-तंत्र और महकमे पर लगने वाला है, उन्होंने सबको आनन-फानन में क्लीन चिट दे कर घोषणाओं की बारिश कर दी और समस्त तंत्र का अपने काम को पूरी ईमानदारी से करने का भरोसा भी दिया। विरले ऐसे नेता होते हैं जो अपनी छवि की चिंता किए बगैर दूसरे की ग़लती को नजरअंदाज करने का जज़्बा रखते हैं।
(बिहार के भागलपुर की दीप्ति कश्यप इतिहास की छात्रा हैं, डीयू से पढ़ी है और सर्विस की तैयारियों में जुटी हैं यह उनके निजी विचार है)
साभार: दीप्ति कश्यप का यह आलेख सर्वप्रथम Twocircles.net में 12 अक्टूबर 2020 को प्रकाशित हुआ था.
बिहार चुनाव से ज़मीनी रिपोर्ट : देखिए क्या कह रहे है बिहार में पहली बार मतदान करने वाले पढ़े लिखे युवा !
किशनगंज की कोमल कशिश मास कम्युनिकेशन की छात्रा हैं. कहतीं हैं कि मैं पढ़ाई के दौर घर से दूर रही. 7 वर्ष होस्टल और बाकी के साल दिल्ली में रही. इस वर्ष 2020 में यह पिछले 11 वर्षों में यह पहला मौका है जब पिछले 10 महीने से मैं घर में हूँ. इसे मैं अपने लिए कोई अच्छा अवसर नहीं समझती. जब मैं एक अरसे पर नज़र डालती हूँ तो मुझे एक बात निराश करती है कि मेरा ज़िला बिहार में साक्षरता में बहुत पिछड़ा है. कई सांसद, विधायक को इसे सुधारने का मौका मिला लेकिन किसी ने शिक्षा को सीरियसली नहीं लिया. आज भी आंकड़ों में बहुत ज़्यादा परिवर्तन देखने को नहीं मिला है. मैं जवाहर नवोदय विद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय में अपने माता-पिता की वजह से अध्ययन कर सकी क्योंकि वो मेरे अध्ययन को लेकर सचेत थे और शिक्षा के महत्व को समझते थे लेकिन हर किसी को समान अवसर कई कारणों से नहीं मिलता. हमारे ज़िले के ज़्यादातर लोग ग़रीबी रेखा के नीचे हैं. उनके पास ज़िंदगी के कई महत्वपूर्ण कार्यों के लिए पैसे नहीं है जिस वजह से वो शिक्षा जैसे दीर्घकालीन कार्यों के लिए वो पैसे नहीं लगा सकते. इन कठिनाइयों के पीछे सरकारी स्कूलों का ठीक तरह से न चलना भी बड़ा कारण है.इसकी जड़ें मज़बूत नहीं है और कोई इसकी ज़िम्मेदारी नहीं लेना चाहता. यहाँ तक कि वो भी नहीं जो इससे संबंधित पदों पर सरकारी कर्मचारी के तौर पर बैठे हैं. मुझे इस स्थिति को देखकर सरकार के रवैये पर गुस्सा आता है और बड़ी निराशा होती है.
कटिहार निवासी मोहम्मद साजिद अली जो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अलीगढ़ के छात्र हैं उन्होंने कहा कि बिहार में कई तरह की चुनौतियों का सामना लोगों को करना पड़ता है. बिहार में किसानों, विद्यार्थियों एवं आम जन की कई समस्याएं हैं जिन पर बात होनी चाहिए और मुझे लगता है कि जनता इन सब मुद्दों को वोट देते वक़्त अपने ध्यान में रखेगी. खेती के लिए किसानों को कीटनाशकों की कमी, उर्वरकों की निम्न गुणवत्ता है. उचित मूल्य का तय न होना, मंडी का अभाव, जल जमाव एवं सुखाड़ की समस्यायें हैं. खेतों के चकबन्दीकरण की भी बहुत जरूरत है ताकि कई तरह की परेशानियों एवं विवादों से बचा जा सके.
बेगूसराय के दृष्टिबाधित विकलांग छात्र मोहम्मद ज़ाकिर आलम कहते हैं कि बिहार में विकलागों के अधिकारों की अनदेखी होती है. रोज़गार के अवसरों में आरक्षण के घपले को रोका जाये. कथित तौर पर उनका कहना है कि सामान्य अभ्यर्थी कई बार विकलांगों के सीट पर कब्जा जमा लेता है. महंगाई एवं भ्र्ष्टाचार पुराने मुद्दे हैं जिन पर नये तरीके से बात होनी चाहिये. पिछले विधानसभा चुनाव में पीएम मोदी ने जिस नीतीश कुमार की सरकार पर ‘जंगलराज’ का आरोप लगाया था उस नरेंद्र मोदी के लिए इस बार नीतीश ‘सुशासन बाबू’ हो गए हैं. बिहार के राजकीय विश्वविद्यालयों का हाल बुरा है. सत्र को नियमित रूप से चलाकर खानापूर्ति बंद करना चाहिए. इस बात पर बल देते हुए व्व कहते हैं कि कॉलेज, ब्लॉक हर जगह के कर्मचारियों का वेतन वक़्त पर आ जाता है लेकिन वो शिक्षक जिनका काम समाज निर्माण का है उनका वेतन लंबित रहता है.नियमित रूप से उन्हें वेतन देना चाहिए ताकि वो जिन कार्यों के लिए हैं उन कार्यों पर ज़रूरी ध्यान दे सकें.
अररिया के याहया रहमानी कहते हैं कि सरकारी और निजी स्कूल का भेद मिट सा गया है. चिकित्सा के क्षेत्र की व्यवस्था पर ध्यान आकृष्ट करते हुए कहते हैं कि निजी डॉक्टरों की फ़ीस बहुत ज़्यादा है जिसे एक आम आदमी के लिए वहन करना आसान नहीं होता जिस कारण उन्हें सरकारी अस्पतालों का रूख करना पड़ता है जहाँ उन्हें उच्च कोटि की लापरवाही दिखती है. कई बार गर्भवती महिलाओं को खुले में ही प्रसव के दौरान देखना आम बात हो गई है. खेती के लिए बिजली-पानी नहीं मिलता है. पानी में आयरन की समस्याओं से स्थानीय लोगों को बड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. बिहार सरकार के ‘जल योजना’ का क्या हुआ ? उसकी क्या स्थिति है ये जगज़ाहिर है. जनप्रतिनिधियों की उदासीनता पर बल देते हुए वो अंत में कहते हैं कि यह कह अंत में रहा हूँ लेकिन ये सबसे बड़ी समस्या है कि सरकार चाहे किसी की भी हो, जनप्रतिनिधियों की ग़ैर-मौजूदी जनता को उदासीनता की तरफ़ ले जाती है. जनप्रतिनिधी हमेशा स्थानीय इलाके में नहीं रहते. उन समस्याओं से रूबरू नहीं होते. केवल पटना-दिल्ली में बैठकर वो ज़मीनी समस्याओं को कैसे सुलझायेंगे ? केवल चुनाव के समय जनप्रतिनिधियों की सक्रियता विशेष रूप से बढ़ जाती है जो पूरे कार्यकाल के अधिकांश वक़्त में नहीं दिखती.
मधेपुरा निवासी मृत्युंजय कुमार कहते हैं कि बिहार में रोज़गार के अवसरों की कमी है. नीतीश कुमार ने अपने 15 वर्षीय कार्यकाल में कितने कारखाने खोले और कितने बंद पड़े कारखानों का जीर्णोद्धार किया ? अपराध के मामले बिहार में कम नहीं है. आम आदमी सुरक्षित नहीं है. दबंगों से समाज पर आधिपत्य जमा रखा है. कई सर्वे व रैंकिंग में भी बिहार पीछे है. राजकीय विश्विद्यालय एवं उससे संबंधित कॉलेजों में कक्षाओं का संचालन न के बराबर है. कई बार शिक्षकों के ‘ज्ञान’ का प्रदर्शन हमें न्यूज़ चैनल में देख बड़ी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है जब शिक्षकों को ही उसका ठीक ढंग से ज्ञान नहीं होता. कई बार सोशल मीडिया पर वो हमें देखने को मिल जाता है. टॉपर घोटाला किसी से छुपा हुआ नहीं है.
दरभंगा के ओसामा हसन कहते हैं कि सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की कमी और क्वालिटी एजुकेशन की खस्ता हालत है. प्रत्येक प्रखण्ड में +2 तक के स्कूल की सुविधा और 2 ब्लॉक पर एक डिग्री कॉलेज की सुविधा होनी चाहिए जो नहीं है ताकी स्टूडेंट्स को डिग्री तक के एजुकेशन के लिए जिला हेड क्वार्टर नहीं आना पड़े. दरभंगा शहर में स्वास्थ्य सेवाएं काफी महंगी हो गयी है, इस पर लगाम लगाने की आवश्यकता है. इस शहर में वाटर लॉगिंग का मसला है, बारिश होने पर शहर में आवागमन में दिक्कत होती है. बारिश के दिनों में दरभंगा मेडिकल कॉलेज के परिसर में पानी लगता है जिसकी वजह से मरीज़ और अटेंडेंट को काफ़ी परेशानियों का सामना करना होता है. दरभंगा के प्रत्येक ब्लॉक में एक रेफेरल अस्पताल की ज़रूरत है जिसमें सारी सुविधाएं मौजूद हों. ग्रामीण सड़कों का खस्ता हाल है.
पटना के अविनाश कुमार कहते हैं कि बिहार में भौतिक क्षमताओं का सर्वोत्तम उपयोग किया जाना चाहिए. लड़की, जुट व टिम्बर उद्योग स्थापित होने एवं खनिज के उपयोग से बिहार को समृद्ध बनाये जाने की दिशा में कदम उठाया जा सकता है. करीब 40 किलोमीटर गंगा का भाग एक ही ज़िला पटना से होकर गुज़रता है जिससे लघु-मध्यम व्यापारों जैससे मछुआरों के पेशे को बेहतर किया जा सकता है. खेती को बढ़ावा देकर बिलजी का उत्पादन सुचारू रूप से कर मजदूरों के पलायन को रोका जा सकता है. राजकीय विश्विद्यालय की स्थिति को बेहतर करने के लिए सत्र को नियमित कर अनियमितताओं को ख़त्म किया जाना चाहिए. इन विश्विद्यालयों को डिजिटल सुविधाओं से जोड़कर विद्यार्थियों की कई तरह की समस्याओं का ऑनलाइन निवारण कर मुख्य रूप से शिक्षा को बढ़ावा दिया जा सकता है. बाढ़ग्रसित इलाकों में रह रहे छात्रों के लिए उनके संबंधित संस्थानों में उनके राहत के लिए विशेष लचीले नियम का प्रावधान हो जिससे उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में नई कठिनाइयों का सामना न करना पड़े. बाढ़ की समस्याओं से निपटने एवं क्षति को कम करने की तरफ़ वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम के ज़रिये बढ़ा जा सकता है. इसके लिए आपदा प्रबंधन विभाग को नये सिरे से पहल करने की ज़रूरत है. बिहार में बाढ़ की समस्या कोई नई नहीं है.फस्ट टाइम वोटर के तौर पर बलरामपुर विधानसभा (कटिहार) के नफ़ीस अकबर कहते हैं कि कुछ बेहतर कार्य हुआ ही नहीं है. बतौर युवा मैंने सोंचा जब कार्य हो ही नहीं रहा तो ऐसे लोगों को मैं किस आधार पर अपना नेता चुन लूं ? हमारे यहाँ सड़कों का बुरा हाल है. हर साल बाढ़ आती है जिससे घर के घर तबाह हो जाते हैं और लोग परेशान रहते हैं. योजना का लाभ निचले स्तर तक नहीं पहुंचता है और आसानी से बिना भ्र्ष्टाचार के ज़्यादातर काम नहीं हो पाता है.
(नेहाल अहमद वर्तमान में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ के छात्र हैं और Twocircles.net पोर्टल में इंटर्न पत्रकार हैं)
Sunday, October 11, 2020
मिज़ाज-ए -बिहार : जब हम दुनिया बदल सकते हैं तो दूसरे पर आश्रित ही क्यों है !
October 11, 2020
आज मुद्दा चुनावी हैं. जैसा कि हम सब जानते हैं बिहार में चुनावी मौसम अपने उफ़ान पर है. इन दिनों एक गीत सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रहा है जिसके स्वर हैं- ‘बिहार में का बा’….! इसलिए समझते हैं ‘बिहार में का बा’ के अतीत को, साथ ही वर्त्तमान और भविष्य में निहित असीम संभावनाओं को भी. मेरी लाख नाराज़गी के बाबजूद जो एक बेहद सुकून देने वाला सत्य है वो ये कि बिहारी लोग सियासी रूप से बहुत अधिक सजग होते हैं. वर्त्तमान को देखने से पहले ये देखना बेहद जरूरी है कि हम बिहार के अतीत के गौरवमय गाथा से बख़ूबी परिचित हैं कि नहीं !
बिहार का अस्तित्व हमें अतीत में हमेशा से मिलता रहा है चाहे वो रामायण-काल हो, जैन व बुद्ध धर्म का आविर्भाव हो या फिर मगध जिसका 1000 वर्षों तक भारत में शक्ति, शिक्षा और संस्कृति का केन्द्र के रूप में बने रहना हो या फिर मौर्य सम्राट अशोक (जो पाटलिपुत्र में पैदा हुए थे )को दुनिया के इतिहास में सबसे बड़ा/महान शासक माना जाना हो. मौर्य साम्राज्य भारत की आज तक कि सबसे बड़ी साम्राज्य रही जो पश्चिमी ईरान से लेकर पूर्व में बर्मा तक और उत्तर में मध्य-एशिया से लेकर दक्षिण में श्रीलंका तक पूरे भारतवर्ष में फैला था. मगध में उत्पन्न गुप्त साम्राज्य को विज्ञान, गणित, खगोल विज्ञान, वाणिज्य, धर्म और भारतीय दर्शन में भारत को स्वर्ण-युग कहा गया. आधुनिक बिहार भी अनेकों गाथाओं को अपने साथ समाहित किए हुए हैं. फिर चाहे बात आज़ादी के प्रथम सिपाही विद्रोह में बाबू कुंवर सिंह की भूमिका से आज़ादी के बाद प्रथम जनक्रन्ति के मुखिया लोक नायक जय प्रकाश नारायण तक के सफऱ की ही क्यों न हो, हमने अनेकों गौरवशाली इतिहास को बनते देखा. बिहार ने विभाजन के बाद भी विभाजन के दंश को सहा हैं. पहले ओड़िसा और फिर झारखंड दोनों राज्य बिहार से ही अलग हुए हैं. 15 अगस्त 1947 को हम सब एक थे फिर क्या वज़ह रही कि हम बिहारियों पर बीमारू का ठप्पा लग गया ? जब भी हमने स्वाभिमान से बोला ‘एक बिहारी सब पे भारी’ तो क्यों हर बार प्रतिउत्तर में हमें एक बिहारी सौ बीमारी का नारा ही सुनाया गया ? जब हमारे हाथ से संपदा वाले क्षेत्र चले गए तो हमने कृषि के दम पर उन्नति करने की कोशिश जारी रखी ! पर आखिर कब तक?
निरंतरता अगर सकारात्मक हो तो उसे जरूर कायम रखना चाहिए मगर जब ये नकारात्मक हो तो अविलंब सुधार की गुंजाइश भी होनी चाहिए. बिहार में इतना जड़त्व कब से आ गया कि हमारी गिनती लगातार फ़िसड्डी राज्यों में ही होने लगी ? बिहार मेहनतकश बिहारारियों से बना हैं फिर उनकी मेहनत कहाँ प्रदर्शित होती हैं जब अपने राज्य के उत्थान में ये काम ही नहीं आती ? क्या आर्यभट्ट ने शून्य का अविष्कार बिहार के हर सकारात्मक सूचकांक को प्रदर्शित करने के लिए ही किया था ? बिहार ने विश्व को अनेकों व्यक्तित्व दिए हैं- महावीर, आर्यभट्ट, अशोक, चंदगुप्त-1,गुरु गोविंद सिंह, चाणक्य, वीर कुंवर सिंह, डॉक्टर राजेन्द प्रसाद, श्री कृष्ण सिंह, जय प्रकाश नारायण, विद्यापति, नागार्जुन, रामधारी सिंह दिनकर, बिस्मिल्लाह खां……….ये सूची अंतहीन हैं. बिहार ने सबसे ज्यादा संख्या में देश को प्रशासनिक सेवक दिया, इंजीनियर, डॉक्टर बनने वालों की भी यहाँ भरमार हैं. अपने देश ही नहीं विदेशों में भी बिहारियों के परचम के झंडे बुलंद हैं फिर हमारे अपने ही बिहार में ये चिराग तले अंधेरा कैसे हो गया ? और इसकी हमें ख़बर तक नहीं लगी ? एक गौरवशाली इतिहास से आज हम हर क्षेत्र में पीछे हो गए और अब तो इसे हमने सामान्य भी मानना शुरू कर दिया है, ये कैसे संभव हो गया ? बिहार विश्व में शिक्षा का केंद रहा था, कैसे हमने आज अपनी धरोहर खो दी ? और आज हम बिहारारियों को अपने बेहतर भविष्य, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, और अन्य विकल्प के लिए दूसरे राज्यों का रुख करने के लिए बेबस होना पड़ रहा हैं? इन सब का जबाब सिर्फ एक है- राजनीतिक इक्षाशक्ति की कमी. हुक्मरानों ने सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने मतलब की रोटी सेंकी, उन्हें जन-कल्याण के सरोकार से विशेष मतलब रहा ही नहीं, नेताओं की संपत्ति में हजारों गुणा की बढ़ोत्तरी होती गई, हमारे बिहारी भाई-बहन गरीब से और गरीब होते गए और ये विरोधाभास निरंतर चलता रहा. इसी का परिणाम हैं जिसके कारण आज हम बिहारारियों की ये दुर्दशा हैं. इंग्लिश में एक प्रोवर्ब है- ‘पुअर आर पुअर बिकॉज़ दे आर पुअर’…. गरीबी एक दुष्चक्र होती है जिसे तोड़ना आसान नहीं होता. मुख्य रूप से हम बिहारी कृषि कार्यों में ही संलग्न हैं जहाँ कम उत्पादन होता है. जनसंख्या अधिक है परिणामतः कृषि के लिए कम क्षेत्र उपलब्ध है जिससे कम उत्पादन क्षमता परिणाम कम पूंजी का निर्माण फलतः कम निवेश परिणाम कम बचत परिणामतः निम्न क्रय शक्ति जिसका सीधा संबंध निम्न प्रति-व्यक्ति आय से है. जब तक आय के सृजन को नहीं बढ़ाया जाएगा हमें गरीब ही बने रहना होगा और यही एकमात्र विकल्प भी है हमारे पास. हमें जो प्राकृतिक रूप से प्राप्त हैं वही पर्याप्त हो सकता हैं बशर्ते नेताओं की इक्षाशक्ति और कुशल प्रबंधन का हमें साथ मिले. कच्चे माल को तैयार माल में परिवर्तित करके हम ग्रामीण जनसंख्या के आय को चार गुणा तक कम से कम बढ़ा सकते हैं मगर हमारी विडंबना है कि हमारी सरकार ने इस दिशा में कभी कोई कदम ही नहीं उठाया. उत्पादन के चार मुख्य घटक में से भूमि,श्रम,उद्यमी हमारे पास कमोबेस उपलब्ध होते हैं. हम पूँजी में ही पीछे हो जाते हैं जहाँ से ये गरीबी के दुष्चक्र की शुरुआत होती है जिसके लिए हमारी सरकार ने पिछले 70 वर्षों से भी अधिक सालों के बावजूद भी कोई सकारात्मक व रणनीतिक एजेंडा के तहत किसी भी कार्यक्रम का सफ़ल क्रियान्वयन नहीं
किया.चोरी,हत्या,डकैती,लूट,अपहरण,रेप,भ्रष्टाचार,फर्जीवाड़ा,घोटाले जैसे राजनीति के पर्याय बन गए.
जो सबसे जरूरी है वो है शिक्षा, एक शिक्षित समाज ही एक उन्नत और समृद्ध देश की परिकल्पना को साकार करता है. उसमें भी महिला शिक्षा जिससे माना जाता है कि यदि हम एक महिला को शिक्षित करते हैं तो हम ना सिर्फ उस महिला को शिक्षा दे रहे होते हैं बल्कि उनके साथ-साथ उनके परिवार को भी शिक्षा देने का काम कर रहे होते हैं और बिहार का दुर्भाग्य है कि आज़ादी के बाद लगातार शिक्षा के सूचकांक में बिहार का क्रमांक नीचे के पायदान से प्रथम व द्वितीय ही बना रहा है जिस कारण हम किसी भी प्रकार के विकास एवं उन्नत की कल्पना बिहारियों से नहीं कर सकते हैं और यही मुख्य वजह भी है कि तमाम क्षमताओं और काबिलियत होने के बावजूद भी हम लगातार पीछे रहने के लिए बेबस है. चूंकि मौसम चुनावी है और कोरोना-काल की वजह से इस बार ज्यादातर बिहारी अभी अपने ही प्रदेश में है इसलिए ये जरूरी है कि लोकतंत्र के महापर्व में हिस्सा लिया जाए और पूर्व की तरह जातिगत समीकरण से ऊपर उठकर विकास के मुद्दों पर और जो बातें हम से सीधे रूप से जुड़े हैं-शिक्षा,स्वास्थ्य, बिजली, सड़क, सुरक्षा,पर्यावरण, रोजगार के लिए बेहतर विकल्प आदि मुद्दों को ध्यान में रखकर एक अंतहीन इंतजार से बिहार के लिए सही तस्वीर को प्राप्त करने के लिए आगामी चुनाव में अपना महत्वपूर्ण योगदान जरूर दें. उम्मीद है हम सबके सार्थक प्रयास से एक दिन बिहार में बहार जरूर आएगी.
(दीप्ति कश्यप, एम ए इतिहास , दिल्ली विश्वविद्यालय की पास आउट छात्रा हैं और वर्तमान में कानपुर यूनिवर्सिटी से बीएड करते हुए साथ ही सिविल सर्विस की तैयारी में जुटी हूई हैं)
Published Twocircles.net || October 11, 2020. http://twocircles.net/2020oct11/439363.html
Thursday, October 8, 2020
राजद ने बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण हेतु उतारे केवल 3 मुस्लिम उम्मीदवार
October 8, 2020

राष्ट्रीय जनता दल ने बुधवार की दोपहर को बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण के लिए कुल 42 विधानसभा उम्मीदवारों की आधिकारिक सूची जारी कर दी है. इन 42 विधानसभा क्षेत्रों के उम्मीदवारों की सूची में हैरान करने वाली बात ये है कि राजद ने इन 42 में केवल 3 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं. बाँका विधानसभा से जावेद इक़बाल अंसारी को उम्मीदवार घोषित किया गया है. वहीं रफीगंज विधानसभा (औरंगाबाद) से मोहम्मद नेहालुद्दीन और गोविंदपुर विधानसभा (नवादा) से मोहम्मद कामरान को उम्मीदवार घोषित किया गया है.
बांका विधानसभा से कुल आठ प्रत्याशियों ने आज बुधवार को नामांकन किया जिसमें राजद से जावेद इक़बाल अंसारी भी एक हैं. जावेद इक़बाल अंसारी लालू प्रसाद यादव का संबंध कोई नया नहीं है. लालू प्रसाद यादव के ज़िम्मे में जावेद अंसारी 3 बार एमएलए बनें और पर्यटन मंत्री भी रहे. कुछ ही महीने पहले जून में जदयू के एमएलसी पद से सिद्धान्तों को कारण बता इस्तीफा देकर फिर से जावेद इक़बाल अंसारी से राजद का दामन थाम लिया था.
रफीगंज विधानसभा (औरंगाबाद) से मोहम्मद नेहालुद्दीन आरजेडी उम्मीदवार भी नये नहीं हैं. वर्ष 2005 में इस सीट पर उन्होंने कब्जा जमाया था. 2010 और 2015 में हुए चुनाव में जीत हासिल कर जेडीयू ने इस सीट पर फिलहाल अपना कब्जा जमा रखा है. रफीगंज सीट पर पिछले दो चुनावों से जेडीयू का कब्जा है. 2010 के चुनाव में राजद के मो. नेहालुद्दीन को जेडीयू के अशोक कुमार सिंह ने मात दी थी. अशोक कुमार सिंह को 58501 मिले थे, वहीं मो.नेहालुद्दीन को 34816 वोट हासिल हुए थे. इस चुनाव में हार का अंतर 23685 मतों का रहा था. 2015 में एलजेपी के प्रमोद कुमार (53372 वोट) को मात देकर जदयू के अशोक कुमार सिंह (62897) इस सीट पर विराजमान हुए थे.
गोविंदपुर विधानसभा (नवादा) से कभी पिता तो कभी बेटा, सास-बहू भी एमएलए रहीं. गोविंदपुर सीट पर 40 साल से एक ही परिवार का दबदबा रहा. यादव मतदाताओं की बहुलता की वजह से इसे बिहार का ‘मिनी मधेपुरा’ भी कहा जाता है. सियासी आंकलन के मुताबिक यहां सबसे ज्यादा यादवों के करीब 70 हजार वोट हैं. उसके बाद मुस्लिमों के करीब 30 हजार वोट हैं. दलितों का भी करीब 70 हजार वोट इस इलाके में है. इनमें सबसे ज्यादा मांझी और राजवंशी के 25-25 हजार वोट हैं. अगड़ी जाति में भूमिहारों के करीब 20 हजार जबकि राजपूतों के करीब 8 हजार वोट इस इलाके में हैं. इस बार फिर इस सीट से यादव दंपति पूर्णिमा यादव ताल ठोक रही हैं लेकिन चुनाव चिह्न हाथ की जगह तीर हो चुका है. उनके खिलाफ राजद से मोहम्मद कामरान हैं. देखना ये दिलचस्प होगा कि इस परिवार की गहरी पैठ को मोहम्मद कामरान आखिर तोड़ पाते हैं कि नहीं और अगर तोड़ पाते हैं तो आखिर कैसे ? अगर इस पैठ को मोहम्मद कामरान तोड़ते हैं तो यकीन जानिये कि कई लोगों को इससे मनोवैज्ञानिक बल मिलेगा और राजनीति में ऐसे कई लोगों लड़ने हेतु टूटता हौसला मज़बूत हो सकता है.
स्थानीय निवासी अरशद अहमद कहते हैं कि सेकुलरिज़्म के नाम पर मुसलमानों को ठगने का काम जारी है. राजद के लिए काम करने वाले मीरान हैदर हों, या फिर शरजील इमाम हों या आसिफ़ इक़बाल तन्हा किसी के लिए राजद खड़ा होने को तैयार नहीं हैं. विशेष तौर पर राजद के लिए मीरान हैदर ने तो बहुत कार्य किया है. क्या छात्रों के आक्रोश को तेजस्वी यूँ ही नज़रअंदाज़ कर देंगे ? क्या भारत का मुसलमान बीजेपी की वजह से अपना कीमती वोट किसी को भी दे देगा ? भारत के मुसलमानों को इस बात पर ग़ौर करना चाहिए कि अपने आपको सेकुलर कहने वाली पार्टियां अपने मुसलमान जनप्रतिनिधियों को कितना छूट देती है और किसी बिल पर किसी मुद्दे पर उन्हें कितना चुप रहना और कितना बोलना है ये कहाँ से तय होता है और उन मुस्लिम नेताओं से मुसलमानों को कितना फायदा होता है !
Wednesday, October 7, 2020
बिहार यथार्थ : रिपोर्ट्स तो बदतर बताती है बाकी सुशासन बाबू जाने !

नेहाल अहमद । Twocircles.net
बिहार की राजनीति से बहुत से लोग परिचित हैं. लोग आम तौर पर राजनीति की बात जब आती है तो उस राजनीति में बिहार को और बिहार में उस राजनीति को ढूंढना पसंद करते हैं. बिहार का गौरवशाली इतिहास ऐसा है जिसने देश भर में बिहार को एक अलग ही मकाम दिया है और बिहार के महत्व को दर्शाता है. बिहार का सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन, अल्हड़पन एवं जन चेतना इसकी राजनीति को हमेशा से प्रभावित करता आया है लेकिन देखना ये दिलचस्प होगा कि क्या बिहार की राजनीति अब जनता को आखिर किस प्रकार प्रभावित करती है.
चुनाव से पहले जब बिहार को लेकर ख़बरों एवं प्रोपैगैंडा का सिलसिला जारी है वहीं दूसरी ओर हमारी ज़िम्मेदारी है कि बिहार के उन पहलूओं पर भी नये सिरे से बात की जाये जिन पर आम तौर पर मीडिया के बड़े हिस्से में बात नहीं हो रही है. बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत पर अगर बहस का सिलेबस पूरा हो चुका हो तो ‘नया पेपर’ बिहार की स्थिति जानने के लिए तैयार कीजिये और उसके ज़रिये से जानने की कोशिश कीजिये कि आखिर बिहार का सच क्या है ? बिहार अपने किस-किस सच से पीछा छुड़ायेगा ? आज़ादी के इतने बरसों बाद भी बिहार की स्थिति दयनीय है और वो राज्य जो कभी बिहार का हिस्सा हुआ करते थे, कई मामलों में इस वर्तमान बिहार से बेहतर है. वो कौन सी नीतियां हैं जो उन्हें आगे ले गई और बिहार पिछड़ता ही चला गया. हमें नये सिरे से इस बात पर ग़ौर करने की ज़रूरत है.
चुनाव के मद्देनज़र नेताओं का इधर से उधर आना-जाना आम बात हो गया है. देखना दिलचस्प होगा कि पीढ़ी दर पीढ़ी किसी ख़ास नेता या पार्टी को चाहने वालों की सोंच कितनी बदली है और इस बदलते वक़्त में वो खुद के नज़रिये में परिवर्तन कर बिहार को कितना बदलने की कोशिश करते हैं.
सरकारी रैंकिंग व रिपोर्ट्स में बिहार की स्थिति
हाल ही में वित्त मंत्रालय द्वारा 5 सितंबर को जारी ‘बिज़नेस रैंकिंग’ डेटा के अनुसार बिहार 36 में से 26वें नम्बर पर है जहाँ धंधा-व्यापार आसानी से, आराम से किया जा सके. हालांकि देखा जाये तो वहीं झारखंड जो पहले बिहार का हिस्सा था वो 5वें नम्बर पर है.
नीति आयोग द्वारा ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स इंडेक्स-19, दिसम्बर 2019 में जारी किया गया जिसमें बिहार सबसे निचले स्थान पर है.
बिहार में शिक्षा क्षेत्र की स्थिति देखी जाये तो पता चलेगा कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय (नवीन नामकरण शिक्षा मंत्रालय) द्वारा जारी नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरएफ) के अनुसार इंजीनियरिंग संस्थानों में आईआईटी पटना वर्ष 2016 में 10वां, 2017 में 19वां, 2018 में 24वां, 2019 में घट कर 22वां और 2020 में 26वां स्थान रखता है. आईआईएम (गया) और एम्स (पटना) को भी कहीं पर जगह नहीं मिली है.
नेशनल स्टेटिकल ऑफिस की शिक्षा पर जारी रिपोर्ट के अनुसार बिहार में शिक्षा की 70.9% गिरावट है. भारत में शिक्षा के बुरे स्तर के आधार पर राज्यों की स्थिति देखें तो तीसरे नम्बर पर बिहार है.नेशनल इंस्टिच्यूट्स ऑफ ट्रांस्फोर्मिंग इंडिया 2019-20 के अनुसार ग़रीबी सबसे ज़्यादा बिहार में है.
स्वास्थ्य के मामलों में देखें तो इंडिया स्टेट लेवल डिज़ीज़ बर्डेन इनिशिएटिव, मई 2020 की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की सबसे ज़्यादा मौत (1 लाख, 41 हज़ार, 5 सौ) बिहार में है जिसमें 75,300 मौत जन्म के वक़्त ही, पैदा होते ही हो जाती है.
मिनिस्ट्री ऑफ वूमेन एंड चाइल्ड डेवलपमेंट जिसकी ज़िम्मेदारी कैबिनेट मंत्री स्मृति ईरानी हैं, उन्होंने संसद में एक लिखित जवाब दे कहा कि 5 वर्ष से नीचे के 48.3% बच्चों शारिरिक विकास रुका हुआ है क्योंकि उन्हें सही पोषण, पौष्टिक आहार नहीं मिल रहा है.
मिनिस्ट्री ऑफ स्टेटिस्टिक्स एंड प्रोग्राम इम्प्लीमेंटेशन के अनुसार बिहार में प्रति व्यक्ति आय के मामलों में 2018,2019 में 43,822 रुपये के साथ सबसे निचले स्थान पर है.
इसके अलावा बिहार में शिक्षा को लेकर राज्य के विश्विद्यालयों की क्या स्थिति है और उन विश्विद्यालय से एफिलिएशन प्राप्त कॉलेजों में प्रोफेसरों की रिक्तियों एवं कक्षा के संचालन पर नज़र दौड़ाया जाये तो स्थिति बड़ी भयावह है. बिहार के अधिकतर विश्विद्यालय में बुनियादी सुविधाओं की ज़रूरत है जिसके बग़ैर विद्यार्थियों को प्रतियोगी परीक्षाओं के काबिल नहीं बनाया जा सकता. अगर हमें शिक्षा को लेकर पलायन को रोकना है तो सबसे पहला कदम बिहार के सरकारी विश्विद्यालयों की स्थिति में सुधार करना होगा जहाँ पाठ्यक्रम को सुचारू एवं नियमित रूप से चलाने हेतु कई दिशानिर्देश दिये जाने चाहिए एवं ज़मीनी स्तर पर क़ायदे से उसे लागू करने की ज़रूरत है वरना अगर प्रोफेसर का काम कॉलेज में आकर गप्प लगाना एवं साम्प्रदायिकता से भरे हिंदी के अख़बार पढ़ना और छात्रों का काम स्थानीय नेताओं के पीछे घूमना रह गया तो हमें सोंचने की ज़रूरत है कि क्या ये कॉलेज/यूनिवर्सिटी सिर्फ कई तरह के ट्रेनिंग करवाने के एक भवन के रूप में स्थापित किये गए हैं या इसका कोई शिक्षा से सीधा संबंध है भी या नहीं ? ये लेख बिहार की संपूर्ण स्थिति को परिभाषित नहीं करता.
इतना ही काफ़ी नहीं बल्कि बिहार की स्थिति को मापने के लिए और भी बहुत से पहलू हैं जिसे कई आधारों पर देखा जाना चाहिए.
(नेहाल अहमद ट्रेनी जर्नलिस्ट है , बिहार के सीमांचल में रहते हैं वो टीसीएन इंटर्नशिप प्रोग्राम से जुड़े हुए है)
भारत का सर्वोच्च विज्ञान पुरस्कार बुशरा अतीक के नाम
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) की पूर्व छात्रा डॉ बुशरा अतीक को मेडिकल स्किनोल के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य के लिए भारत के सर्वोच्च सम्मान शांति भटनागर पुरस्कार 2020 से सम्मानित किया गया है।
यह पुरस्कार काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (CSIR) के संस्थापक निदेशक स्वर्गीय डॉ शांति स्वरूप भटनागर के नाम पर रखा गया है। प्रत्येक वर्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी में उत्कृष्ट योगदान के लिए पुरस्कार दिया जाता है।
वह सम्मानित होने वाले 12 वैज्ञानिकों में शामिल हैं। यह पुरस्कार 26 सितंबर को वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) के स्थापना दिवस के दौरान घोषित किया गया था।
डॉ अतीक वर्तमान में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। उसने चिकित्सा विज्ञान के लिए श्रेणी में पुरस्कार जीता है। पोस्टग्रैजुएट इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च, चंडीगढ़ के डॉ रितेश अग्रवाल इस श्रेणी में पुरस्कार जीतने वाले एक और वैज्ञानिक हैं।
डॉ अतीक का शोध कैंसर बायोमार्कर और आणविक घटनाओं पर केंद्रित है जो प्रोस्टेट और स्तन कैंसर में प्रगति का कारण बनता है। डॉ अग्रवाल फुफ्फुसीय चिकित्सा के एक प्रोफेसर हैं और उनका मुख्य शोध क्षेत्र एक कवक संक्रमण है जिसे एलर्जिक ब्रोंकोपुलमोनरी एस्परगिलोसिस कहा जाता है।
उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के जूलॉजी के डिपार्टमेंट से बी.एससी (ऑनर्स), एम.एससी और पीएचडी की पढ़ाई की।
डॉ अतीक को कई व्यक्तियों और समूहों द्वारा बधाई दी गई है। जिन लोगों ने उनके लिए अपनी प्रशंसा व्यक्त की उनमें अलीग बिरादरी शामिल है।
बुशरा अतीक एएमयू की पूर्व छात्रा रही है और उनकी इस उपलब्धि पर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में खुशी का माहौल है। एएमयू के पूर्व छात्र सलीम मोहम्मद खान ने कहा है कि यह फ़ख्र करने लायक है। इससे यह भी साबित होता है कि एएमयू राष्ट्र निर्माण में भी अग्रणी भूमिका निभा रहा है ।
Published In Twocircles.net || September 28, 2020
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